सोमवार, 5 सितंबर 2011

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

रविवार, 17 जनवरी 2010

मंत्री का बेटा

मंत्री का बेटा
बड़े बाप का बेटा सचमुच बड़ा होता है|हकीकत तो यह है कि बड़े बाप का बेटा उस व्यक्ति से भी बड़ा होता है जिसका वह बेटा है|वह किसी को भी अपनी गाड़ी से कुचल सकता है,बार में शराब न मिलने पर किसी को भी गोली मार सकता है,शराब पीकर अपनी आवारा मित्र मंडली के साथ गाड़ी में घूमना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है|
बड़े लोगों में भी यदि बात मंत्री के बेटे कि करें तो उसका कोई जोड़ नहीं|मंत्री का बेटा होने के कई ऐसे फायदे हैं जो किसी और का बेटा होने में कतई नहीं हैं|जिस तरह अर्जुन का पुत्र गर्भ में ही चक्रव्यूह भेदने की कला सीख गया था,मंत्री का बेटा राजनीति के दांव-पेंच सीख जाता है|मंत्री-पुत्र होना बड़े सौभाग्य की बात है|मंत्री का बेटा पैदायशी मंत्री होता है अगर नहीं तो पिता के चमचे उसे मंत्री बना देंगे|चाहे वो पढ़े या न पढ़े उसकी ख्याति में कोई कमी नही आती|अगर न पढ़े तो कोई बात नहीं और यदि पढ़े तो ऑक्सफोर्ड,कैम्ब्रिज से कम उसके लिए विश्वविद्यालय नहीं|वह अपने देश में भी घूमना पसंद नहीं करता,वह अमेरिका,ब्रिटेन,थाईलैंड,मलेशिया या सिंगापुर का रास्ता देखता है|अगर मंत्री पुत्र ने किसी लड़की को छेड़ दिया या किसी को अपनी कार तले रौंद भी दिया तो पुलिस उसे छू भी नहीं सकती,अगर पकड़ भी ले तो तत्काल ऊपर से फ़ोन आ जाता है|बात यहीं नहीं रूकती,पुलिस को उसे पकड़ने का प्रायश्चित भी करना पड़ सकता है|मंत्री पुत्र को नौकरी की आवश्यकता नहीं होती है|वह अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभालता है|लोगों को अगर कोई काम हो तो वे पहले पुत्र के पास जाते हैं फिर पिता के|मंत्री पुत्र की माया अपरम्पार होती है|वह अपने पिता की करसी बरक़रार रखने के लिए बेकार एवं बेरोजगार मित्रों की टोली बनाकर समाज कल्याण के काम करता है|इस बात में यह कोई महत्त्व नहीं रखता की वह मंत्री किस विभाग का है|ये भी मायने नहीं रखता की मंत्री केंद्रीय मंत्री है या राज्य मंत्री है|कमोबेश सबका यही हाल है|
भगवान सभी को मंत्री पुत्र होने का सुख प्रदान करें,यही मेरी कामना है|

अरुण सरोहा
हिंदी पत्रकारिता
दिल्ली विश्वविद्यालय|

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

आरक्षण एक लोलीपॉप
आरक्षण से तो आप सभी अवगत होंगे|वैसे कहने को तो भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है|इतिहास गवाह है की धर्म और जाति के नाम पर मीठी -मीठी बातें भी हुईं और धर्म-जाति के ही नाम पर लोगों को मारा काटा भी गया|राजनीतिक रोटियां अगर सेंकनी हों तो धर्म-जाति से बढ़िया तवा आपको संसार में नहीं मिलेगा|कुछ लोग ये नहीं चाहते की देश में अमन चैन रहे|इसलिए ये चंद लोग आये दिन धर्म या जाति को अपना औज़ार बनाते हैं|एक तरफ तो सरकार धर्मनिरपेक्षता की बात करती है,सबको समान अधिकारों की बात करती है परन्तु दूसरी तरफ जाति के ही नाम पर आरक्षण देती है ताकि ये जाति व्यवस्था कायम रहे और वो इसे लोलीपॉप की तरह कभी इसके हाथ में तो कभी उसके हाथ में देती रहे|माना के दबेकुच्ले हुए लोगों को आगे लाना कोई बुरी बात नहीं परन्तु क्या इसकी कीमत सामान्य जाति के लोगों को इतनी ज्यादा चुकानी पड़े की उनका जीना तक मुहाल हो जाए,क्या ये न्यायसंगत है?
दिल्ली जैसे बड़े शहर में कहाँ कौन पिछड़ा हुआ है?वैसे बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान में दलितों को आरक्षण इसलिए दिया था ताकि वे दुसरे वर्गों एवं जातियों के बराबर आ सकें|यह 10 साल के लिए किया गया था|लेकिन दुर्भाग्य ये की वो 10 साल आज तक ख़त्म नहीं हुए|ख़ुद अम्बेडकर ने यह नहीं सोचा होगा की ये आरक्षण कभी ख़त्म नहीं होगा|उन्हें क्या मालूम था की ये "घाघ"इससे ज़िन्दगी भर अपनी राजनीति चमकाते रहेंगे|इसे नेताओं ने राजनीति करने का साधन बना लिया|कभी अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण,कभी महिलाओं को तो कभी मुसलमानों को|जबकि आरक्षण 50 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकता परन्तु कई राज्यों में ये 50 फीसदी की सीमा पार कर चुका है|मैं पूछता हूँ की आरक्षण आर्थिक आधार पर क्यों न दिया जाए?गरीब किसी भी जाति का वर्ण का व्यक्ति हो सकता है तो क्या सवर्ण गरीब परिवार में पैदा होना उसकी गलती है?एक व्यक्ति तो पुश्त दर पुश्त आरक्षण की मलाई काटता आ रहा है और दूसरा बेचारा दर दर की ठोकरें|जहाँ आरक्षण का वास्तव में लाभ देने की ज़रुरत है जैसे छत्तीसगढ़,त्रिपुरा,नागालैंड इत्यादि की जनजातियाँ वहां तो ये पहुच नहीं पा रहा और दिल्ली जैसे शहर में लोग खूब इसका लाभ उठा रहे हैं|उदाहरण के लिए दिल्ली में धन धनाड्य परिवारों से ताल्लुक रखने वाले लोग भी आरक्षण की मलाई काट रहे हैं|बाप के बाद बेटा,बेटे के बाद उसका बेटा,यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है|यदि किसी परिवार से एक व्यक्ति ब्यूरोक्रेट बन जाता है तो कई पुश्तें सुधर जाती हैं परन्तु फिर भी उसका बेटा इसका लाभ लेगाऔर फिर उसका भी बेटा|मीना जाति ने इसीलिए हंगामा किया था की गुज्जरों ने उनकी श्रेणी में से आरक्षण के लिए दावा पेश कर दिया था,अब जो इतने सालों से इसकी मलाई खाते आ रहे हों वे भला इसका विरोध क्यों न करते?उदाहरण के लिए दो व्यक्तियों को लीजिये-एक प्रशानिक अधिकारी है जो अनुसूचित जाति से है वहीं दूसरा व्यक्ति एक क्लर्क है जो सामान्य श्रेणी में है|दोनों के बच्चे जब कहीं आवेदन करते हैं तो प्रशासनिक अधिकारी के बेटे को फीस या तो नहीं देनी होती या बिलकुल मामूली जबकि उसका पिता पूरी तरह सक्षम है,वहीं जिस क्लर्क की आय दुसरे के मुकाबले आधी भी नहीं उसके बेटे को पूरी फीस देनी पड़ेगी|ये कैसा न्याय है?आरक्षण यहीं नहीं ठहरता बल्कि फीस माफ़ी के बाद आरक्षित सीटों से लेकर ऊम्र में छूट,फिर नौकरी पाने के बाद पदोन्नति में भी अपना रंग दिखाता है|यानि वह व्यक्ति मरते दम तक आरक्षण का लाभ लेकर मरता है|

अगर सीटों के आरक्षित होने की बात करें तो वह व्यक्ति अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर तो दावा कर ही कर सकता है बल्कि सामान्य पर भी दावा ठोंक सकता है|अगर उसके सामान्य वर्ग के कट-ऑफ के बराबर अंक आ गए तब वह सामान्य वर्ग में आ जाएगा और सामान्य वर्ग की एक सीट हथिया लेगा जबकि जो अभ्यर्थी सामान्य वर्ग का है वह किसी और सीट पर अपना दावा पेश नहीं कर सकता,इस से भी सामान्य वर्ग की पतली हालत का अनुमान लगाया जा सकता है|तभी तो यह मांग भी उठ रही है की जैसे सीटें अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए आरक्षित हैं उसी तरह सामान्य वर्ग के लिए जो सीटें हैं वो भी सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित कर दी जाएँ ताकि सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए कुछ तो राहत हो|

दूसरा,जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए"क्रीमी लेयर" का प्रावधान है उसी तरह अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए भी यह रूल बने|क्यों वे एक के बाद एक इसका लाभ उठायें|अनुसूचित जाति के एक राजपत्रित अधिकारी का बेटा क्यों क्रीमी लेयर में न आये जबकि उसपर वो सारे मापदंड खरे उतारते हैं जो उसे क्रीमी लेयर में आने देने के लिए पर्याप्त हैं|अगर सामान्य वर्गों के साथ इसी तरह बर्ताव होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब सामान्य और गरीब परिवार में पैदा हुए बच्चे पर ख़ुशी नहीं मातम मनाया जाएगा|

अरुण सरोहा
हिंदी पत्रकारिता
दिल्ली विश्वविद्यालय|

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

चाय का महत्व

चाय का महत्व
चाय का भारत में काफी महत्व है|शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो चाय न पीता हो,और अगर पीता न हो तो उसे चाय के बारे में न पता हो|चाय का इतना महत्व शायद ही किसी दूसरे देश में हो|अगर सुबह उठते ही चाय न मिले तो क्या मजाल की बिस्तर छूट जाए|इसे "बेड टी "की संज्ञा दी जाती है|यहाँ आपको यह बताते चलें कि भारत विश्व का सबसे ज्यादा चाय का उत्पादन करने वाला देश है,यह बात और है कि चाय ही काफी महंगी है यहाँ पर|अब तो आलम यह है कि आम आदमी के बस से बाहर होती जा रही है ये चाय|
हम चाय के महत्व के बारे में बात कर रहे थे,भारत में चाय का एक महत्वपूर्ण स्थान है|सुबह उठो तो चाय,मेहमान घर आये तो चाय|बारिश हो तो पकोड़े और चाय,प्रेशर न बन रहा हो तब चाय,नींद न आने देनी हो तो चाय|ख़ुशी का माहौल हो तो चाय और यहाँ तक कि किसी कि मौत पर गएँ हों तो भी चाय|ये चाय रिश्ते बनाने में काफी सहायक साबित होती है,चाहे वो रिश्ता प्रेमी-प्रेमिका का,प्रोफेसर-छात्र का या फिर दो दोस्तों का और या फिर दो सहकर्मियों का|चाहे चाय नुकसान करती हो परन्तु फिर भी लोगों के जीवन में इसका एक अनूठा स्थान है|चाय की ही दुकान पर लोग अपने संबंधों को मज़बूत करते एवं देश दुनिया पर चर्चा करते दिखाई देते हैं|शीला सरकार के राज में जहाँ हर चीज़ महंगी होती जा रही है वहीं चाय भी इस से अछूती नहीं है|245 ग्राम चाय की कीमत औसतन 74 रुपए के करीब है|इसके अलावा जो सामग्री इसमें डलती है वो भी महंगी हुई है,मसलन दूध जो इसकी प्रमुख सामग्री में से एक है वह पिछले 4 महीनों में 3 बार बढ़ चुका है|चीनी की कीमतों से कौन वाकिफ नहीं है|40 रु/किग्रा रेट चल रहा है आजकल|मैं तो श्रीमती शीला दीक्षित से यही अनुरोध करूँगा कि जिस चाय में इतनी खासियत है उसे तो कम से कम गरीबों से दूर न करें|उनपर कुछ तो तरस खाएं|

अरुण सरोहा
हिंदी पत्रकारिता
दिल्ली विश्वविद्यालय|

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

नेताओं की सुरक्षा,जनता का सरदर्द

नेताओं की सुरक्षा,जनता का सरदर्द
यह बात जगजाहिर है कि नेताओं के लिए होने वाले सुरक्षा इंतजामों के कारण जनता को काफी दिक्कतें पेश आती हैं|इसके अनेकों प्रसंग देखे गए हैं|इस बार यह मसला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के चंडीगढ़ पीजीआई दौरे के कारण चर्चा में आया है|पीजीआई के अन्दर जिस वक़्त वह चिकित्सकों और कर्मचारियों को मरीजों की सेवा करने की नसीहतें दे रहे थे,उसी वक़्त बाहर गेट पर एक व्यक्ति इलाज के बगैर ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था|उसे कभी इस गेट पर तो कभी उस गेट पर चक्कर कटाए जा रहे थे|आखिरकार उसने तड़पते हुए दम तोड़ दिया|उसकी मौत शायद न होती अगर उसे एक गेट से दूसरे गेट तक चक्कर न काटने पड़ते|इस घटना से उत्तेजित मृतक के परिजनों ने काफी हंगामा किया|बाद में इसकी शिकायत पुलिस में भी दर्ज करायी गयी|बाद में प्रधानमंत्री को उस परिवार से माफ़ी भी मंगनी पड़ी थी और पीएमओ ने भी खेद जताया था|दरअसल सुमित प्रकाश को अगर समय से उपचार मिल जाता तो उसे ओक्सिजन मिल गयी होती तो उसकी जान बचाई जा सकती थी|
असल में यह कोई पहला मामला नहीं है|इस से पहले भी आम आदमी के नेताओं और अति विशिष्टों की सुरक्षा की भेंट चढ़ने के किस्से होते रहे हैं|हर बार इस मसले पर बहस भी होती रही है,परन्तु आज तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया|आम आदमी भी इन "ख़ास" लोगों के कारण कई बार मुश्किल में आ चुका है|इसके पहले 1998 में इन्दर कुमार गुजराल के काफिले में एक व्यक्ति के दाखिल हो जाने पर दिल्ली पुलिस के जवानों ने जमकर उसकी पिटाई की थी|वो व्यक्ति एक कंपनी में काम करता था|इसी प्रकार 1991 में एक व्यक्ति नवदीप दीवान को पुलिसवालों ने बुरी तरह महज़ इसलिए पीट दिया क्योंकि वह गलती से प्रधानमंत्री के लिए लगे रूट में घुस गया था|२ अक्टूबर 1993 में भी कई गांधीवादियों को भी इसलिए पीटा गया क्योंकि वह पीएम रूट में प्रवेश करते हुए राजघाट जा रहे थे|
सवाल ये उठता है की क्या इन लोगों के आगे मानवता का कोई मोल नहीं?एक तरफ तो इन लोगों की जानें इतनी कीमती,वहीं आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं?उनका खून खून ,आम आदमी का खून पानी?अगर नहीं तो फिर ये भेदभाव क्यूँ?आम आदमियों को इस से इंकार नहीं कि नेताओं को सुरक्षा मिले,बस उन्हें यह परेशानी है कि ये सुरक्षा आम आदमी की जान के बदले कतई नहीं|आडवाणी के रूट के कारण एक विद्यार्थी परीक्षा में नहीं पहुँच सका था|इसके बाद वे दिल्ली के आसपास जाने के लिए हेलीकाप्टर का इस्तेमाल करने लगे थे|हालांकि ये माध्यम खर्चीला ज़रूर है परन्तु इस से किसी को कोई परेशानी तो नहीं होगी|
इस बात से कोई इंकार नहीं कर पायेगा कि सुरक्षा के नाम पर ट्रैफिक रोकने ,अस्पतालों को ताला लगाने,बेवजह तलाशी लेने के नाम पर पुलिस आये दिन आम जनता को परेशान करती है|अगर उन्हें आम आदमी कि मुश्किलें नहीं दिखाई देती तो वे किस काम के लिए हैं?उनका सबसे पहला फ़र्ज़ जनता के लिए काम करना है |नेता भी उसके बाद आते हैं|इस बारे में उन "खास"लोगों को सोचना होगा जिन्हें आम लोगों ने ही ख़ास बनाया है|

अरुण सरोहा
हिंदी पत्रकारिता
दिल्ली विश्वविद्यालय|

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

डीटीसी का खेल

डीटीसी का खेल
महंगाई कि मार से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है पर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही|लोग ये सोच रहे हैं कि वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब हम कांग्रेस को वोट देकर आये थे|सारे मीडिया में और लोगों के बीच सरकार कि थू-थू हो रही है|लोग ये कह रहे हैं कि ऐसे कौन से लोग डीटीसी के किराये बढ़ाने के पीछे हैं जिन्होंने किराया बढ़ाते वक़्त बिलकुल दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया|ऐसा नहीं कि शीला दीक्षित या अन्य नेता टेलिविज़न न देखते हों या अखबार न पढ़ते हों पर अगर बेशर्मी न हो तो नेता कौन कहे?
दरअसल किराए की स्टेज में भरी गड़बड़झाला है| इसमें काफी खामियां हैं|किलोमीटर के हिसाब से स्टेज कैरेज नहीं बनाया गया है,बल्कि हर स्टाप को ही किलोमीटर मान लिया गया है और उसी के हिसाब से किराया निर्धारित किया गया है|उदहारण के लिए,तीन स्टापों को तीन किलोमीटर मान लिया गया है और उसका किराया ५ रु कर दिया गया है,फिर चे तीन स्टाप १ से १.५ किलोमीटर के बीच ही क्यों न हों|कई जगह तो १ किलोमीटर के दूरी के बीच दो स्टेज पड़ रहे हैं यानि यात्री ३ किमी कि दूरी तय नहीं कर रहे लेकिन उन्हें १० रु देने पड़ रहे हैं|साथ साथ ये भी बता दें कि जितने भी "बाई रिक्वेस्ट " स्टाप बनाए गए थे उन्हें अब फेयर स्टेज में बदल दिया गया है|पहले इन स्टाप्स पर गाड़ी रूकती थी,जिसका किराया पिछले स्टाप से जोड़ा जाता था|
मताब यदि आप दिल्ली गेट से सुप्रीम कोर्ट जाएँ तो पहले किराया था ३ रु और ये एक ही स्टेज मन जाता था|जबकि दोनों जगहों के बीच एक्सप्रेस बिल्डिंग ,आई टी ओ एवं तिलक मार्ग तीन "बाई रिक्वेस्ट "स्टाप भी हैं|अब इसका किराया १० रु हो गया है,जबकि वास्तव में ये दूरी १ से १.५ किलोमीटर ही है|लगभग दिल्ली के हर इलाके में ऐसी ही समस्या आ रही है जिस से यात्रियों और कंडक्टर में बहस हो रही है|

जब लोगों का कड़ा विरोध सामने आया तो अब सरकार नाक बचाने के चक्कर में मीटिंग करती नज़र आ रही है|कल डीटीसी प्रबंधन कि मीटिंग दिन भर चलती रही|डीटीसी के कई अधिकारी और कंडक्टर दबी ज़बान में स्वयं ये मानते हैं स्टाप्स को किलोमीटर में बदलना भरी गलती है और इतना ज्यादा किराया तो किसी हाल में तर्कसंगत नहीं लगता|

आलम अब ये है कि यात्री डीटीसी बसों में काफी कम दिख रहे हैं|जब ५ रु कि जगह यात्री को सीधे दोगुना यानि १० रु किराया देना पड़ रहा है तो उसकी व्यथा बाहर आ ही जाती है|सरकार अगर अब भी जाग जाये तो भी सवेरा कहिए वर्ना अगर जनता अपनी पर आ गयी तो बड़े बड़े तख्त भी पलट देती है|

अरुण सरोहा
हिंदी पत्रकारिता
दिल्ली विश्वविद्यालय|